पिछले साल 8 नवम्बर को प्रधानमंत्री ने एक साहसिक निर्णय
लेते हुए पांच सौ व एक हजार के नोट को चलन से बाहर कर दिया। भारत में चलने वाली
मुद्रा का लगभग 86 प्रतिशत मुद्रा सरकार के एक ही निर्णय से चलन से बाहर हो गई। भारत
के नागरिकों के लिए यह निर्णय कठोर था, दिन रात अपने सारे काम नकद तरीके से ही निपटाने
वाले भारतीय समाज के लिए सरकार का यह निर्णय किसी अग्नि परिक्षा से कम नहीं कहा जा
सकता।
आम आदमी के रूपये खर्च करने की आजादी पर बंधन लग गया था, अपनी
ही मेहनत से कमाये पैसे चलन से बाहर होने के कारण हर व्यक्ति के सामने कम पैसों
में अपना जीवन चलाने की महत्वपूर्ण चुनौती थी। भारत जैसे देश में जहां विशालता और
विविधता के साथ 125 करोड़ लोग निवास करते हैं, इस तरह का निर्णय सभी समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों
और राजनेताओं को हतप्रभ कर देने के लिए काफी था। शुरू में तो राजनीतिक दलों को भी
यह समझ नहीं आया कि सरकार के इस निर्णय का विरोध किया जाए या समर्थन ? लेकिन
48 घंटे बीतने के बाद बसपा सुप्रीमों मायावती और दिल्ली के मुख्यमंत्री
ने इस नोटबंदी का विरोध शुरू किया, उसके बाद इस मुद्धे पर राजनीतिक रूप से बढ़त
लेने के लिए राहुल गांधी चार हजार रूपये निकालने के लिए ए टी एम तक जा पहुंचे।
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे रोचक तथ्य यह है कि अधिकांश राजनीतिक दल
अमीरों को ए टी एम लाईन में ना देखने का आरोप लगा रहे थे, इस आरोप से वह
सरकार पर अमीरों और उद्योगपतियों से
मिलीभगत का अपना पुराना आरोप ही पुष्ट करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन
कहीं पर तथ्यात्मक रूप से कोई प्रमाण जनता के बीच में नहीं लाया गया। राहुल गांधी
ने भी कश्मीर में मुठभेड़ में मारे गये आतंकी के जेब से दो हजार के दो नोट मिलने का
उदाहरण देकर नोटबंदी की विफलता को सिद्ध करने की कोशिश जरूर की लेकिन उसे किसी ने
भी गंभीरता से नहीं लिया।
यह भी गौर करने लायक विषय है, जिस पर कभी भी
ज्यादा चर्चा नहीं हुई कि इस निर्णय से जाली मुद्रा जिसके जरिये आतंकवाद और
नक्सलवाद जैसी देशद्रोही गतिविधियां फलफूल रही थी, एकदम दंतविहिन
हो गई हैं। देश में चल रहा काल्पनिक आर्थिक बाजार जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में
डब्बा कारोबार कहा जाता है, औंधे मुंह जमीन पर आ पड़ा। जिन लोगों के पास
अघोषित रूपया रखा था, उनके सामने उसे सार्वजनिक करने के अलावा कोई विकल्प बचा नहीं था। हां,
एक
परेशानी जरूर सामने आई जिसपर लगभग सभी लोगों की सहमति थी और वह यह थी कि घर की
महिलाओं द्वारा संचित निधि के बारे में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं थे। ढ़ाई लाख रूपये
की सीमा तय है, उससे उपर की राशी को ‘काला धन’ कहना किसी को भी
न्यायसंगत नहीं लग रहा था।
जो राजनीतिक दल इस नोटबंदी को विफल बताने का असफल प्रयास कर रहे हैं,
उनके
पास इस नोटबंदी को विफल बताने के लिए मजबूत और तर्कसंगत आंकडे़ नहीं हैं। वे यह
भूल रहे हैं कि सरकार द्वारा नोटबंदी किये जाने के बाद लगभग 14
लाख करोड़ रूपया वापस रिजर्व बैंक के पास पहुंच चुका है। भारतीय जनमानस के एक बडे़
वर्ग ने केशलेस अर्थव्यवस्था को खुले मन से स्वीकार किया है। हां, यह
जरूर दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि इस दौरान लगभग 33 जनों की असमय
मृत्यु हुई। यहां यह भी देखने और समझने लायक बात है कि घंटों लम्बी लाईनों में
बिताने के बावजूद देश के सामान्य नागरिक सड़कों पर विद्रोह के लिये नहीं उतरे अपितु
अपने कष्टकारी अनुभव के बावजूद वे सरकार के निर्णय के साथ खड़े हुए नजर आये।
कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल
गांधी हों या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, लालू यादव हों
या बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी इनके द्वारा चलाए जा रहे नोटबंदी की
विफलता के आंदोलन को जनसमर्थन नहीं मिला। इसीलिए नया साल आते आते राहुल गांधी
विदेश में छुटिटयां मनाने चले गये और विपक्षी एकता भी धराशाई हो गई। दरअसल,
ये
सभी नेता देश को यह विश्वास दिलापाने में विफल रहे कि नोटबंदी को लेकर
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीयत में खोट है।
इसके उलट देश की जनता ने देखा कि सरकार किस तरह नोटों का संचय करने
वाले, कालाधन को सफेद करने वाले, सोना खरीदकर कालाधन को छिपाने वाले लोगों को
सक्रीयता के साथ ना केवल पकड़ रही है अपितु उनके सारे सिंडिकेट को ही गिरफ्तार कर
जेल में डाल रही है। भ्रष्टाचार करने वाले बैंक अधिकारी भी ना केवल नौकरी से हटाये
गए अपितु कई बैंकों के अधिकारियों को गिरफ्तार कर जेल में भी डाला गया। केन्द्र
सरकार की इस पहल का तोड़ विपक्षी दलों के पास नहीं होने के कारण नोटबंदी पर सरकार
को घेरने का विपक्षी दलों का प्रयास विफल हो गया। लोकतंत्र में
सरकार के निर्णय की समीक्षा आगामी चुनावों में होती है, नोटबंदी के बाद
हुए चंडीगढ़, महाराष्ट्र
और गुजरात में हुए स्थानीय चुनावों में भाजपा की जीत ने यह भी साबित किया कि देश
की जनता नोटबंदी के निर्णय पर सरकार के साथ है।
जाली मुद्रा, आतंकवाद, नक्सलवाद और
कालाधन से निपटने के लिए की गई नोटबंदी नया साल आते आते केशलेस इंडिया के नारे में
बदल गई । 10 दिसंबर 2016 तक के आंकडे़ बताते हैं कि इ वाॅलेट से भुगतान
की संख्या 17 लाख से बढ़कर 63 लाख पर पहुंच चुकी थी। रूपे कार्ड के प्रयोग
में 316 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई यानि 16 लाख लेनदेन
प्रतिदिन । नोटबंदी के एक माह बाद आये ये परिणाम इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जिस
देश में नकद रूपये को ही भगवान का दर्जा प्राप्त हो वहां के नागरिकों ने अपने आप
को बदलाव के लिये तैयार कर लिया है।
नोटबंदी का यह निर्णय भारत जैसे देश के लिए बड़ा और युगान्तरकारी
निर्णय है, जिसमें असुविधा तो जरूर है परन्तु यह भारत के उज्जवल भविष्य की तरफ
संकेत भी कर रहा है जिसमें देश के नागरिकों की आदत बदलने और कर भुगतान के प्रति
उत्तरदायी बनाये जाने की ओर प्रतिबद्धता परिलक्षित हो रही है।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया
रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)