बुधवार, 4 जनवरी 2017

नोटबंदी: उत्तरदायी बनाये जाने को परिलक्षित होती प्रतिबद्धता




पिछले साल 8 नवम्बर को प्रधानमंत्री ने एक साहसिक निर्णय लेते हुए पांच सौ व एक हजार के नोट को चलन से बाहर कर दिया। भारत में चलने वाली मुद्रा का लगभग 86 प्रतिशत मुद्रा सरकार के एक ही निर्णय से चलन से बाहर हो गई। भारत के नागरिकों के लिए यह निर्णय कठोर था, दिन रात अपने सारे काम नकद तरीके से ही निपटाने वाले भारतीय समाज के लिए सरकार का यह निर्णय किसी अग्नि परिक्षा से कम नहीं कहा जा सकता।

आम आदमी के रूपये खर्च करने की आजादी पर बंधन लग गया था, अपनी ही मेहनत से कमाये पैसे चलन से बाहर होने के कारण हर व्यक्ति के सामने कम पैसों में अपना जीवन चलाने की महत्वपूर्ण चुनौती थी। भारत जैसे देश में जहां विशालता और विविधता के साथ 125 करोड़ लोग निवास करते हैं, इस तरह का निर्णय सभी समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं को हतप्रभ कर देने के लिए काफी था। शुरू में तो राजनीतिक दलों को भी यह समझ नहीं आया कि सरकार के इस निर्णय का विरोध किया जाए या समर्थन ? लेकिन 48 घंटे बीतने के बाद बसपा सुप्रीमों मायावती और दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इस नोटबंदी का विरोध शुरू किया, उसके बाद इस मुद्धे पर राजनीतिक रूप से बढ़त लेने के लिए राहुल गांधी चार हजार रूपये निकालने के लिए ए टी एम तक जा पहुंचे।

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे रोचक तथ्य यह है कि अधिकांश राजनीतिक दल अमीरों को ए टी एम लाईन में ना देखने का आरोप लगा रहे थे, इस आरोप से वह सरकार पर अमीरों  और उद्योगपतियों से मिलीभगत का अपना पुराना आरोप ही पुष्ट करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन कहीं पर तथ्यात्मक रूप से कोई प्रमाण जनता के बीच में नहीं लाया गया। राहुल गांधी ने भी कश्मीर में मुठभेड़ में मारे गये आतंकी के जेब से दो हजार के दो नोट मिलने का उदाहरण देकर नोटबंदी की विफलता को सिद्ध करने की कोशिश जरूर की लेकिन उसे किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया।

यह भी गौर करने लायक विषय है, जिस पर कभी भी ज्यादा चर्चा नहीं हुई कि इस निर्णय से जाली मुद्रा जिसके जरिये आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी देशद्रोही गतिविधियां फलफूल रही थी, एकदम दंतविहिन हो गई हैं। देश में चल रहा काल्पनिक आर्थिक बाजार जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में डब्बा कारोबार कहा जाता है, औंधे मुंह जमीन पर आ पड़ा। जिन लोगों के पास अघोषित रूपया रखा था, उनके सामने उसे सार्वजनिक करने के अलावा कोई विकल्प बचा नहीं था। हां, एक परेशानी जरूर सामने आई जिसपर लगभग सभी लोगों की सहमति थी और वह यह थी कि घर की महिलाओं द्वारा संचित निधि के बारे में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं थे। ढ़ाई लाख रूपये की सीमा तय है, उससे उपर की राशी को काला धनकहना किसी को भी न्यायसंगत नहीं लग रहा था।

जो राजनीतिक दल इस नोटबंदी को विफल बताने का असफल प्रयास कर रहे हैं, उनके पास इस नोटबंदी को विफल बताने के लिए मजबूत और तर्कसंगत आंकडे़ नहीं हैं। वे यह भूल रहे हैं कि सरकार द्वारा नोटबंदी किये जाने के बाद लगभग 14 लाख करोड़ रूपया वापस रिजर्व बैंक के पास पहुंच चुका है। भारतीय जनमानस के एक बडे़ वर्ग ने केशलेस अर्थव्यवस्था को खुले मन से स्वीकार किया है। हां, यह जरूर दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि इस दौरान लगभग 33 जनों की असमय मृत्यु हुई। यहां यह भी देखने और समझने लायक बात है कि घंटों लम्बी लाईनों में बिताने के बावजूद देश के सामान्य नागरिक सड़कों पर विद्रोह के लिये नहीं उतरे अपितु अपने कष्टकारी अनुभव के बावजूद वे सरकार के निर्णय के साथ खड़े हुए नजर आये।

 कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी हों या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, लालू यादव हों या बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी इनके द्वारा चलाए जा रहे नोटबंदी की विफलता के आंदोलन को जनसमर्थन नहीं मिला। इसीलिए नया साल आते आते राहुल गांधी विदेश में छुटिटयां मनाने चले गये और विपक्षी एकता भी धराशाई हो गई। दरअसल, ये सभी नेता देश को यह विश्वास दिलापाने में विफल रहे कि नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीयत में खोट है।

इसके उलट देश की जनता ने देखा कि सरकार किस तरह नोटों का संचय करने वाले, कालाधन को सफेद करने वाले, सोना खरीदकर कालाधन को छिपाने वाले लोगों को सक्रीयता के साथ ना केवल पकड़ रही है अपितु उनके सारे सिंडिकेट को ही गिरफ्तार कर जेल में डाल रही है। भ्रष्टाचार करने वाले बैंक अधिकारी भी ना केवल नौकरी से हटाये गए अपितु कई बैंकों के अधिकारियों को गिरफ्तार कर जेल में भी डाला गया। केन्द्र सरकार की इस पहल का तोड़ विपक्षी दलों के पास नहीं होने के कारण नोटबंदी पर सरकार को घेरने का विपक्षी दलों का प्रयास विफल हो गया। लोकतंत्र में सरकार के निर्णय की समीक्षा आगामी चुनावों में होती है, नोटबंदी के बाद हुए चंडीगढ़, महाराष्ट्र और गुजरात में हुए स्थानीय चुनावों में भाजपा की जीत ने यह भी साबित किया कि देश की जनता नोटबंदी के निर्णय पर सरकार के साथ है।

जाली मुद्रा, आतंकवाद, नक्सलवाद और कालाधन से निपटने के लिए की गई नोटबंदी नया साल आते आते केशलेस इंडिया के नारे में बदल गई । 10 दिसंबर 2016 तक के आंकडे़ बताते हैं कि इ वाॅलेट से भुगतान की संख्या 17 लाख से बढ़कर 63 लाख पर पहुंच चुकी थी। रूपे कार्ड के प्रयोग में 316 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई यानि 16 लाख लेनदेन प्रतिदिन । नोटबंदी के एक माह बाद आये ये परिणाम इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जिस देश में नकद रूपये को ही भगवान का दर्जा प्राप्त हो वहां के नागरिकों ने अपने आप को बदलाव के लिये तैयार कर लिया है।

नोटबंदी का यह निर्णय भारत जैसे देश के लिए बड़ा और युगान्तरकारी निर्णय है, जिसमें असुविधा तो जरूर है परन्तु यह भारत के उज्जवल भविष्य की तरफ संकेत भी कर रहा है जिसमें देश के नागरिकों की आदत बदलने और कर भुगतान के प्रति उत्तरदायी बनाये जाने की ओर प्रतिबद्धता परिलक्षित हो रही है।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी 


(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं)

शनिवार, 16 मार्च 2013

अपने सामर्थ्य का प्रकटीकरण करो


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधी सभा दूसरी बार जयपुर में हो रही है। इससे पहले 2004 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी प्रतिनिधि जयपुर आए थे। प्रतिनिधी सभा, सर्वोच्च निर्णायक मंडल है, इसी सभा पर देश और दुनिया के सभी राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषकों की निगाह रहती है, क्योंकि यहीं से इस संगठन की आगे की कार्य व्यवस्था और दिशा तय होती है।
इस सभा में संघ परिवार के सभी संगठनों के जिम्मेदार अधिकारी देश भर से आए प्रतिनिधियों के सामने विगत वर्ष के सांगठानिक कार्यों का लेखा जोखा तो रखते ही हैं, साथ ही समय काल परिस्थितियों के अनुरूप देश के हालातों से भी उन्हैं अवगत कराते हैं। संघ का शीर्ष नेतृत्व, राष्ट्र के प्रति समर्पित हजारों कार्यकर्ताओं के माध्यम से इस सभा में देश की आत्मा के साथ साक्षात्कार करता है। हर साल होने वाला यह उपक्रम  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नई उर्जा प्रदान करता है और आसन्न चुनौतियों के प्रति सावधान भी करता ही है।
यह सही है कि 1925 में विजयादशमी के दिन जन्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज समाज के सभी वर्गों और क्षेत्रों को प्रभावित करता है। छात्र, मजदूर, किसान, शिक्षा, वनवासी, धर्म, सेवा और राजनीति जैसे कई क्षेत्रों में कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सिद्धांतों को स्थापित किया है और अपनी विशिष्ट पहचान भी बनाई है। फिर क्या कारण है कि इस देश और समाज के लगभग सभी क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पुरातनपंथी और अव्यवहारिक सोच वाला संगठन माना जाने लगा है ?
यह सच्चाई भी माननी ही चाहिये कि पूरी दुनिया और भारत में अपनी सशक्त उपस्थिति के बावजूद देश का बड़ा वर्ग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अप्रासंगिक बताकर हाशिए पर धकेलने की पूरी कोशिश करता रहा है, और कर रहा है। कभी गांधीजी की हत्या के नाम पर शुरू हुई यह कोशिश अब भगवा आतंकवाद तक आ पहुंची है। चुनौती कई तरफ से है, एक तरफ तो देश की युवा पीढ़ी को बरगलाया जा रहा है कि संघ का प्रखर राष्ट्रवाद, आतंकवाद का ही दूसरा रूप है, तो दूसरी तरफ सत्ता को बनाए रखने के लिए संघ के विरोध को ही जनसमूहों की ताकत में बदल दिया गया है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि संघ का विरोध आज सत्ता में बने रहने की गारंटी है, और इसी कारण घोरतम विरोधी भी एकजुट हो जाते हैं, और देश के प्रति किया गया अपराध भी इन्हैं सत्ताच्युत करने के लिए पर्याप्त नहीं होता।
यह कैसे संभव है कि राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक इतने बडे़ वर्ग के होते हुए भी सोनिया गांधी जैसी महिला भारत की नीति नियंता बन जाती है ? यह समझ में आने लायक बात नहीं है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कांग्रेस देश में शासन कर पा रही है ? यह भी महत्वपूर्ण प्रश्न है कि किस तरह सरकारें पूरे भारत की प्रतिनिधि ना होकर कुछ वर्गों और समाजों की पैरोकार बन गई हैं, जो भारत को पराजित करने के लिए आतंक और धर्मातंरण जैसे पापकारी कार्य करने में लगे हुए हैं, और आश्चर्य तो यह है कि सत्ता में बैठे लोग उनको संरक्षित कर रहे हैं।
अपना फर्ज निभाने के कारण मार दिये गए उत्तरप्रदेश के पुलिस अधिकारी जिया उल हक के परिवार को न्याय दिलाने के नाम पर धन की वर्षा हो रही है, और उसमें सभी राजनीतिक पार्टियों में होड़ लगी हुई है, परन्तु देश की सीमा पर शहीद हो जाने वाले हेमराज का सिर ले जाने के बाद भी निजी यात्रा पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भारत आने का दुस्साहस कर पाता है, और उनको सिर्फ इसीलिए शाही भोज दिया जा रहा है, जिससे कि एक समुदाय खुश हो सके।
यह आश्चर्य नही तो और क्या है कि संघ जैसे इतने बडे़ सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक अधिष्ठान की उपस्थिति के बावजूद देश में विदेशी मिशनरियां वनवासियों और वंचितों के बीच धर्मांतरण कर रही हैं। आज की परिस्थितियों में सरकारें, संघ के विरोध को अपनी ताकत मानने लगी हैं, और अपनी इस ताकत को बढ़ाने के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।
यह भी समझना ही होगा कि संघ से इस देश ही नहीं दुनिया को भी बहुत आशाएं हैं. पूरे विश्व को सयुंक्त राष्ट्र संघ द्वारा पालित और पोषित विकास की अवधारणा पर चलाने का कुत्सित प्रयास विदेशी शक्तियां कर रही हैं. उनकी ये नीतियां  भारत के मन और मानस के लिए जहर हैं, इसको स्वीकार करने से ना केवल भारत तिनका तिनका कर बंट रहा है, अपितु हमारी  हजारों वर्षा पुरानी सामाजिक व्यवस्था भी तहस नहस हो रही है , और  हम ऐसे मूकदृष्टा साबित हो रहे हैं, जो प्रबल बाहुबली और आत्मस्वाभिमान से युक्त होने के बावजूद अपने सामर्थ्य का प्रकटीकरण नहीं कर पा रहे है।
तो जरूरत इस बात की है चारों तरफ से बढ़ रहे दबावों और भीतरी अन्तर्विरोधों के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा इस बात को स्वीकार करे कि  भारत का  अवचेतन मन पीडित है, और उसकी समस्या हमारा अपना समाज, उसकी मनोवृत्ति और शासन है। इदं न ममः राष्टाय स्वाहाः, का आहवान तभी ज्यादा सार्थक हो पाएगा, जब शासन पर उन कार्यकर्ताओं की प्रतिष्ठा होगी, जिनके रोम रोम से भारत के मन और मानस की अभिव्यक्ति होती हो। इसी के साथ हमें उन युगानुकूल परिवर्तनों के लिए भी तैयारी करनी पडे़गी, जिसको विश्व एक मूलभूत बुनियादी परिवर्तनकारी एंजेडे के रूप में स्वीकार कर सके, क्योंकि जिस व्यवस्था ने भारत को हजारों सालों से अक्षुण रखा है, वही व्यवस्था विश्व के लिए कल्याणकारी हो सकती है।
यही तो भारत दर्शन है, जिसे इंडिया नहीं समझ पा रहा है। हमारी दृष्टि भारत को बचाने के लिए सम्यक कार्ययोजना बनाने पर होने की आवश्यकता है ना कि रक्षात्मक कार्ययोजना के लिए। यही सही समय है, जब भारत विरोधी सिर उठाने लगें और अपनी ताकत का इस्तेमाल भारत के मन और मानस को बदलने और कुचलने के लिए कर रहे हों, तब हमें ऐसी भीषण गर्जना करनी ही होगी, जिससे भारतविरोधियों के चेहरे भय से पीले पड जाएं और विश्व में पूरब की आध्यात्मिक और अलौकिक ज्योति का संचार हो सके।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

घर आ रहे ‘राम’ स्वागत करो

देर से ही सही, लेकिन अब भारतीय जनता पार्टी वापस अपने हिन्दू ऐजेंडे पर लौट रही है, 1990 के बाद यह पहला मौका है, जब पूरी पार्टी एकजुटता के साथ अपने उसी रंग में लौटने का प्रयास कर रही है, जिसके लिये वो पहचानी जाती थी।  मुस्लिम बुद्धिजीवी और राजनेता आरिफ मोहम्मद खान अक्सर यह कहते हुए मिल जाते हैं कि राम मंदिर के निर्माण को लेकर भारतीय जनता पार्टी गंभीर नहीं थी, वह राम के जरिये सत्ता पाना चाहती थी, उसे सत्ता तो मिली, पर उससे राम का साथ छूट गया। बात तो उनकी सही है सत्ता के साथ राम की पवित्रता और पोरुष ना हो तो वह सत्ता भी व्यर्थ ही है। राम के दूर जाने के बाद भाजपा की राह में काँटों की भरमार हो गई।
 राम  हाशिये पर गये तो कश्मीर भी पीछे छूट गया और समान नागरिक संहिता की बात तो नौजवान भाजपा कार्यकर्ताओं को भी पता नहीं होगी, और इसी के साथ भाजपा का कांग्रेसीकरण शुरू हो गया और आम जनता में यह विश्वास जमने लगा कि भाजपा और कांग्रेस में कोई भी अंतर नहीं  है ? कांग्रेस भी सत्ता के लिए जोड़ तोड़ कर रही है और भाजपा भी देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए राजनीति में आने वाली भाजपा के लिए इससे बुरा दौर हो नहीं सकता था।
इस दौरान भाजपा ने उत्तरप्रदेश  में तो अपनी जगह खोई ही, साथ में हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र, उडीसा में भी अपनी स्थिति को कमजोर ही किया। वह दूसरी बड़ी पार्टी से सिमट कर तीसरे चौथे स्थान पर रह गई और क्षेत्रिय दलों ने भाजपा के आधार को कमजोर कर दिया   मजबूत और वैकल्पिक विपक्ष के अभाव में आज भारत में राष्ट्रीय पार्टियों के सामने क्षेत्रिय दलों के साथ गठबंधन की मजबूरी है भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी अक्सर इस दौर को एक व्यक्ति वाली राजनीतिक पार्टी का दौर भी कहते थे, जो अपनी शर्तों पर केन्द्र सरकार को समर्थन देने या ना देने का फैसला करते हैं
दरअसल, सत्ता पाने की इन मजबूरियों के बीच उन राजनीतिक दलों और व्यक्तियों की मौज हो रही है, जो सत्ता में भागीदार तो होते ही हैं अपितु वे मुख्य राजनीतिक दलों को भी अपनी नीतियों को बदल देने के लिये मजबूर कर देते हैं। स्पष्ट जनादेश का अभाव, दोहरी मार कर रहा है, एक तरफ तो वह देश  में जातिगत भेद और राजनीति को ताकत दे रहा है और दूसरी तरफ क्षेत्रिय दलों को भी पनपा रहा है। उनके लिए देश की दशा और दिशा से ज्यादा प्रदेश में उनका राजनीतिक अस्तित्व बना रहना अधिक महत्वपूर्ण है इस बात के प्रत्यक्ष उदाहरण के रूप में  मुलायम सिंह यादव, नीतिश कुमार, मायावती, ममता बनर्जी, करूणाकरण, नवीन पटनायक, शिबू सोरेन, लालू यादव, फारूख अब्दुल्ला और जयललिता जैसे ना जाने कितने राजनेताओं की सूची बनाई जा सकती है जो अपने स्वार्थ के चलते ही ऐसे निर्णय लेते हैं, जिनके कारण उनके पक्ष में वोट देने वाला मतदाता अपने आप को ठगा हुआ महसूस करता है और क्षेत्रवाद और जातीयता का जहर संवैधानिक सत्ता को चुनौती देता हुआ दिखाई देता है।
भ्रष्टाचार के नित प्रतिदिन होने वाले खुलासों ने साबित किया है की देश में बढ़ते भ्रष्टाचार में इन दलों की भूमिका काफी बड़ी है, और इनके कारण केंद्र सरकार को भी सी बी आई जैसा हथियार मिल गया है, जिसका इस्तेमाल कर के वह अपने अल्पमत को बहुमत में बदलकर देश की सत्ता पर काबिज है यू पी   ने अपने दोनों कार्यकालों में अपने इस हथियार का बखूबी इस्तेमाल किया है। इस से पहले यह कम पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव भी कर चुके हैं
तो, ऐसी स्थिति में जब देश और समाज में बिखराव के हालात हैं। मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली केन्द्र सरकार स्वतंत्र भारत की सबसे दयनीय और कमजोर सरकार  साबित हुई है   देश  की राजधानी दिल्ली में ही कानून और व्यवस्था का मजाक बन चुका है। देश  का युवा, किसान, महिलाएं और मजदूर आक्रोशित हैं   भारत के आर्थिक हालात बेकाबू हो चले हैं, महंगाई लोगों का जीना दुश्वार कर रही है, आंतरिक सुरक्षा के लचर प्रबंधन के चलते नक्सलवाद नई नई जगहों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है, पंजाब में लगभग समाप्त हो चुके अलगाववाद की कुछ चिंगारियों को फिर से हवा दी जा रही है, पड़ोसी देश  नेपाल, पाकिस्तान,चीन, भूटान और बंगलादेश  में से कोई भी भारत का मददगार नहीं है। देश का साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ रहा है ,चारों तरफ असुरक्षा और अविश्वसनीयता के माहौल से घिरी केन्द्र सरकार का इकबाल समाप्त हो चला  है, वो हर तरफ से बेबस दिखाई पड़ रही है भारत का दुर्भाग्य तो देखिये कि इन परिस्थितियों में भी देश  का विपक्ष भी आग्रह और दुराग्रहों में बंटा हुआ है।
तो यह मानना ही चाहिये कि भारत की इस दुर्दशा के लिए अकेले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कर्मचारीपना ही जिम्मेदार नहीं है, इसके लिए उनके दोनों कार्यकालों के सहयोगी दल और बिखरा हुआ विपक्ष भी जिम्मेदार हैं, जिसके कारण मनमोहन सरकार कोई निर्णय मजबूती के साथ नहीं ले पाई। हांलाकि इन नौ सालों में अमरीका के साथ परमाणु करार और खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति देते समय मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री वाले अंदाज में दिखे। वरना, वो तो हर समय सोनिया गांधी के सेवारतकर्मचारी प्रधानमंत्रीके रूप में ही नजर आये।
तो आज जब जातीयता और क्षेत्रवाद अपने चरम पर हैं तो भाजपा जैसे राजनीतिक दलों को ऐसे नारों और मुद्दों की  आवश्यकता है, जो मतदाताओं के अंतरतम को भारत की विशालता से और उसके मुद्दों से जोड़ सके अयोध्या में राम का भव्य मंदिर के निर्माण का संकल्प और उस पर  बरती जाने वाली ईमानदारी ही भाजपा के परमवैभव के  स्वप्न को साकार करेगी, क्योंकि राम सब देखते हैं कि भाजपा की निष्ठां किस में हैं ,राम में या सत्ता में ?  इस बार तो राम मान भी जाएंगें, लेकिन सत्ता की चाह में पहलेवाली गलती को दोहराया गया, तो राम कभी वापस नहीं आएंगें, क्योंकि राम किसी को ना मारे, ना हत्यारा राम सब खुद ही मर जाएंगें कर कर खोटे काम यही बात तो आरिफ मोहम्मद खान समझा रहे हैं

सुरेन्द्र चतुर्वेदी
(लेखक सेंटर फार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।)